कितनी बातें ऐसी है,
जिन्हें ना कहने से खालिश होती है,
और कह देने से ख्वाहिशें याद आ जाती है
ख्वाहिशों का भी एक अजीब खांचा होता है
दिखावे के लिए खाली होता है
असल में खचाखच भरी होती हैं ख्वाहिशें
इनके पहिए नहीं होते,
मन के रास्ते दबे पांव आती हैं ख्वाहिशें
डर अधूरे पन से होता है
जिसके मारे कभी नहीं जाती हैं ख्वाहिशें
चांद तले बेचैन हो जाती हैं ख्वाहिशें
नींद से पुराना बैर है
रैना जगाती हैं ख्वाहिशें
ज़माने को मंजूर नहीं,
पर कुदरती है ख्वाहिशें
लाख भगायी हमने भी,
कमबख्त, दे ना बिदाई ये
ख्वाहिशें
चिंगारी सी कहीं भीतर छुप जाती हैं
सावन की ठंडक में, हरकत करती हैं
ख्वाहिशें
ज़माने के फरेब में, सहम जाती हैं
उम्मीद की बूंद गिरते ही, फूट पड़ती हैं
ख्वाहिशें
कुछ यादों की डिब्बी में हमने भी
सहेजी हैं ख्वाहिशें
कुछ उम्मीदों के कटोरदान में
बंद पड़ी हैं ख्वाहिशें
अक्सर कोशिश करी हमने
दरिया में बहा दें ये ख्वाहिशें
जब भी किनारे बैठ पांव भिगोते हैं
सीढ़ियों पर फिर मिल जाती हैं ख्वाहिशें
बहुत समझाया है इन्हें,
हमें ना चाहिए ये ख्वाहिशें
वो भोलेपन से कहती हैं...
अकेलेपन में हम ही तो हैं जो साथ देते हैं
हम ही तो करते हैं तुमसे बातें
हम ही तो निभाते हैं वफ़ाएं
हम हैं तुम्हारी आधी, अधूरी, अनछुई, अनकही ख्वाइशें!
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