Monday, September 18, 2017

गौरी लंकेश की समयोचित मृत्यु

न तुम बिकते, न हमसे बिकने की उम्मीद होती |
न तुम डरते, न हमें डरने की ज़रुरत होती |
न तुम समझौते करते, न हमसे समझने की उम्मीद होती |
न तुम घुटने टेकते, न हमें मरने की ज़रुरत होती |

जिस प्रतिभाशाली पत्रकार को हमने खोया उसका नाम तो गौरी था, लेकिन साहस दुर्गा का था | निडरता का प्रतीक, गौरी लंकेश के दोस्त कम थे, समर्थक कई, और दुश्मन अनेक | पी लंकेश, जो पत्रकारिता में एक चिरस्थायी नाम हैं, उनकी बेटी थी गौरी लंकेश | गौरी बंगलुरु में अपनी साप्ताहिक पत्रिका, "गौरी लंकेश पत्रिके" का सम्पादन करती थी |

पत्रकारों और स्वतंत्र विचारों का उल्लेख करने वालों का ऐसा अंत नया नहीं है; बल्कि कई बार इन आवाज़ों को खुद उनके इस बर्बर हश्र का ज्ञात होता है | भारत आज उस मोड़ पर आ खड़ा हुआ है, जहाँ समाज में झूठ का बाजार गर्म है, आलोचनात्मक आवाज़ ठंडी, कट्टरवादियों की आवाज़ मज़बूत और स्वतंत्र लेखन व् पत्रकारिता की हुंकार निस्तब्ध | क्यों हर उस आवाज़ को, जिसके स्वर में एक प्रश्न का अन्तर्भाव होता है, उसको विधर्मी संघ सदा के लिए शांत कर देते है? गौरी लंकेश की हत्या के पीछे असहिष्णुता तो अवश्य थी, परन्तु क्या बस इतना भर कहने से, हम अपनी ज़िम्मेदारियों से भारमुक्त हो जाते हैं ? गौरी लंकेश की हत्या, पत्रकार जगत के लिए चेतावनी का बिगुल है | आग मोहल्ले में लगी थी, और आज उसकी लपटों ने बगल वाले घर को भी ध्वंस कर दिया |
जिनको जान प्यारी है, वह घर छोड़ देंगे, और जिनमें लंकेश की शूरता है, वह आग बुझा देंगे |


लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ होता है, "मीडिया" | सूचना का संचार करता है, और आम जनता की आँख और कान मीडिया होती है | सरकार, प्रशासन, न्यायलय - सब का काला चिट्ठाखोलने का बलबूता इस स्तम्भ पर होता है और यही संभव सामर्थ्य, मीडिया को लोकतंत्र के अखाड़े में खेलने वाले विकृत कुकर्मियों का दुश्मन बना देता है | ऐसा क्या होता है, जब गौरी जैसा एक निडर पत्रकार, नागरिकों में जागरूकता की मुहीम चलता है? सत्ता तिलमिला जाती है, और इन आवाज़ों को दबाने के लिए हर सही गलत, वैद्य-अवैद्य हथखण्डे अपनाती है | कुछ आवाज़ें बिक जाती हैं, जिन्हें माननीय रविश कुमार गोदी मीडिया के नाम से सम्बोधित करते हैं, और कुछ लंकेश हो जाती हैं |

गोदी मीडिया न बिकता, तो आज गौरी की कीमत लगने की बात ही नहीं उठती
गोदी मीडिया न बिकता, तो गौरी से चुप्पी की आस ही नहीं लगती
गोदी मीडिया न बिकता, तो पत्रकारिता में सत्यऔर "असत्य सत्य"  की दीवार ही नहीं खड़ी होती |

लंकेश की मौत इस सच को दबा नहीं सकती, कि पत्रकारिता की ताकत बरकरार है, और सत्ता को ये बात खटकती है | अफ़सोस है, आज कुछ लोग इस ताक़त का सकारात्मक प्रयोग करने से डरते हैं, कुछ हिचकिचाते हैं, और कुछ इसे बेशर्मी से बेच देते हैं

कलम की ताक़त को सिक्कों के तराज़ू में तौलने वालों के लिए, गौरी की मृत्यु एक तकाज़ा है, आज जो तुम्हे खरीद रहे हैं, वही कल तुम्हे बेच देंगे |

किस किस के हाथ, अपनी कलम बेचोगे, किस किस के झूले पर तुम्हारी निष्ठा झूलेगी? या हम यूं समझ लें, पत्रकारिता, सत्ता की आवाज़ है? गौरी की मृत्यु के ज़िम्मेदार असहिष्णु वाहिनी नहीं, दुकान में सजी, बिकने को आतुर, पत्रकारिता है, जिसने इस पेशे पर नैतिकता के परे, छोटी सी कीमत लगा दी |

पत्रकारों से अपेक्षाएं बदल गयी है | सूचना संचार, और अपक्षपाती व्याख्या करने वाले पत्रकारों को या तो झूठे फसादों में फसा दिया जाता है, या घिनौने आरोप लगाकर उनको प्रश्न चिंह्नों से दगा जाता है, या उनको गोलियों की बौछार में भिगो कर, सदा के लिए मौन करा दिया जाता है | आज जो गौरी के साथ हुआ, वो कल तुम्हारे साथ होगा | जब सत्ता बदलेगी, वह तुम्हे भी नहीं बख्शेगी

इससे पहले पत्रकारिता के नए रवैये सर्व व्यापक हो जाएँ, और पाँच साल बाद, तुमको भी एक वीरगति के घाट उतार दें, थाम लो एक दूसरे का हाथ और अपने पेशे पर लगे आपातकालीन को उखाड़ फेंको |

Sunday, September 17, 2017

जानवर हो क्या? अफ़सोस, इंसान हैं |

आज सड़क पर एक आदमी को दूसरे से, गुस्से में कहते सुना, "जानवर हो क्या", और मेरे दिल से आवाज़ आयी, काश होते | हम इंसानो को हमारे इंसान होने पर इतना फक्र क्यों होता है? ऐसा क्या हांसिल कर लेते है हम इंसान, जो चार पैरों पर चलते जानवर नहीं कर पाते?
हल्की आन, खोखली बान और झूठी शान? नसीहत देने की प्रतिभा, मुफ्त के ठाट बटोरने की अभिलाषा, और अपनी ही रिवायतों में जकड़ के दम तोड़ने की तृष्णा?

जितनी सच जानवरों की जाहिल पहचान है, उतनी ही सच उनकी सच्चाई है | वो ना तो साहिर बनने का दावा करते हैं, ना तो बात बात पर मुआफज़ा मांगते हैं | मज़हब से उनका दूर दूर तक नाता नहीं | कभी पूर्णमासी का सीधा खा कर  तो कभी बची हुई इफ्तारी से अपना पेट भर लेते हैं, | बारिश होने लगती है, तो खोज बस एक चबूतरे की होती है, फिर वह चाहे जुलाहे के घर में हो, मंदिर के दालान में, या हकीम के दवाखाने में |
जानवरों की निश्चलता और इंसानो के पेचीदेपन में रक़ाबत हो तो जीत मासूमियत की होगी, वही मासूमियत जिसे हम इंसान बहुत दूर छोड़ आये हैं | शायद आज जिस मोड़ पर हम इंसान खड़े हैं, उसके हम खुद मुश्ताहिक़ हैं |

हमने जानवरों को मारा अपनी भूख मिटाने के लिए, इंसानो को जलाया अपनी सियासत बचाने के लिए, और फिर खुदा के इतने हिस्से कर दिए, कि आज हम अपने खुदा को पहचानने में नाकाम हैं | कब हम इंसान, उस जानवर में तब्दील हो गए, जिसकी पहचान नफरत और बेदखली के काबिल थी?

हाँ जानवर आपकी हमारी तरह :

  • कपडे नहीं पहनते, लेकिन ये भी सच है, कि रेशमी परदे के पीछे अपनी सच्चाई नहीं छुपाते |
  • आलिशान घरों में नहीं रहते, लेकिन ये भी सच है, कि ज़रुरत से ज़्यादा जगह में नहीं पसरते |
  • रोज़ पेट भरने की जद्दो जहद करते हैं, लेकिन ये भी सच है, कि से अधिक नहीं खाते |
  • किसी तय ठिकाने पर नहीं मिलते, लेकिन ये भी सच है, कि ज़मीन के किसी कोने पर अपना हक़ नहीं जमाते |

जिस खुदा ने हमें इंसान बनाया, आज हम उसकी खुदाई को ललकार कर, खुद को खुदा मान बैठे हैं | हम वो हैं, जो जानवरों की बिरादरी को नीच समझते हैं, खुदा का सहूलियत से इस्तेमाल करते हैं, और इंसानियत को लापरवाही से खर्च कर, कंगाल हो चुके हैं |

आज जब हम कहते हैं, "जानवर हो क्या", तो वास्तव में इसका जवाब हैं, नहीं, हम जानवर नहीं हैं, हम इंसान हैं, जिन्हे अपने इंसान होने भर पर गुरूर है |
अफ़सोस है, हम जानवर, कभी हो भी नहीं सकते हैं |

Friday, September 1, 2017

Tribute to Dushyant - तुम कब दुष्यंत को जानोगे?



राजनीति का खेल जीत गए,
राज धर्म कब निभाओगे |
सत्ता की चढ़ाई चढ़ गए,
सत्य पताका कब फेहराओगे ||

लफ़ाज़ी से उर्जित हैं ये दीवारें,
त्राहि कब उजाड़ोगे |
अनवरत वादे हुए मासूमों से,
धूर्तता कब त्यागोगे  ||

कई तख़्त बैठे यहां पर,
धर्मासन कब बिछाओगे |
अनेक नेता आये इस मंच पर,
सुकर्मी से कब मिलवाओगे ||

आरोपों की झड़ी में फिसले हैं सब,
विकृत बखिया कब उधेड़ोगे |
अनैतिकता के खारे दरिया में ,
शुचिता कब मिलाओगे ||

दुष्यंत को वक़्त की सुई ने दफ़ना दिया,
तुम कब दुष्यंत को जगाओगे ||

तुम जब दुर्योधन को त्यागोगे
तुम तब दुष्यंत को मानोगे ||

तुम जब दुर्योधन को त्यागोगे
तुम कब दुष्यंत को देखोगे, 

तुम जब दुर्योधन को त्यागोगे
तुम तब दुष्यंत को जानोगे ||