१६ दिसंबर की रात थी,
वक़्त कुछ बेचैन सा था |
आसमान को भी आभास था,
ये माहौल कुछ ठीक न था ||
आसमान को भी आभास था,
ये माहौल कुछ ठीक न था ||
पहले भी कई बार ये तूफ़ान आ चुका था,
कुछ रोज़ मर्रा का सिलसिला सा था |
फिर एक परी ने दम तोडा था,
और एक नए तारे का अंदेशा था ||
फिर एक परी ने दम तोडा था,
और एक नए तारे का अंदेशा था ||
निर्भया जब आयी वो पशु-तत्वि दुनिया छोड़ कर,
कही अपनी व्यथा, पीड़ा में तर |
कहा अब वापस ना जाउंगी उस जंगल में,
जहां इंसान का नकाब है हर पशु के चेहरे पर ||
कही अपनी व्यथा, पीड़ा में तर |
कहा अब वापस ना जाउंगी उस जंगल में,
जहां इंसान का नकाब है हर पशु के चेहरे पर ||
जिस सृष्टि के लोग संस्कारों की दुहाई देते हैं,
मेरी आत्मा को बेजड़ करा उन्होंने ने |
जो पत्थर की मूर्ति को शॉल उढ़ाते हैं,
मेरी चेतना को नग्न करा उन्होंने ||
मेरी आत्मा को बेजड़ करा उन्होंने ने |
जो पत्थर की मूर्ति को शॉल उढ़ाते हैं,
मेरी चेतना को नग्न करा उन्होंने ||
जिस सृष्टि के लोग निर्जीव की रक्षा में जान लगाते हैं,
बीच सड़क अनदेखा करा उन्होंने |
जो ठिठुरते पिल्लै पर लाड दिखते हैं,
मुझे कलपता छोड़ा उन्होंने ||
बीच सड़क अनदेखा करा उन्होंने |
जो ठिठुरते पिल्लै पर लाड दिखते हैं,
मुझे कलपता छोड़ा उन्होंने ||
आश्चर्य नहीं कुछ नहीं बदला,
जानती हूँ कुछ नहीं बदलेगा |
ये मंद मानसिकता का किस्सा है,
अभी तो बहुत दूर तलक जियेगा ||
जानती हूँ कुछ नहीं बदलेगा |
ये मंद मानसिकता का किस्सा है,
अभी तो बहुत दूर तलक जियेगा ||
ये कैसा आक्रोश था, जो समाज की परिभाषा को भी छू ना पाया
ये कैसे मोर्चा था, जो मेरी बेहेन को निर्भय बना न पाया |
ये कैसी मुहीम थी, जिसकी नींव सशक्ति न थी,
ये कैसी आवाज़ थी, जिसकी गूँज अविरल न थी ||
ये कैसे मोर्चा था, जो मेरी बेहेन को निर्भय बना न पाया |
ये कैसी मुहीम थी, जिसकी नींव सशक्ति न थी,
ये कैसी आवाज़ थी, जिसकी गूँज अविरल न थी ||
न्याय मुझे मिला नहीं, उन दरिंदों को सज़ा मिली है,
सम्मान नारी को मिला नहीं, उन पशुओं को बेनामी मिली है |
सम्मान नारी को मिला नहीं, उन पशुओं को बेनामी मिली है |