Friday, April 27, 2018

समाज का शाश्वत सलाहकार - हिंदी साहित्य

महादेवी वर्मा - वो नाम जिसने 9 वर्ष की आयु में मेरा हिन्दी भाषा और उसकी सरलता से ऐसा परिचय कराया, कि एक रिश्ता सा हो गया शब्दावली से। अँग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने और अँग्रेज़ी भाषा से मेरा लगाव, कभी भी हिन्दी से बने मीठे रिश्ते में बाधा नहीं बना। La Martiniere Girls’ College और मुंबई में रहने के बावजूद अपने गाँव, रिवाज, मान्यताओं की समझ और उनसे लगाव शायद महादेवी वेर्मा, सुमित्रा नंदन पंत, सुभधरा कुमारी चौहान, निराला, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद के अनमोल कथा-कविता-उपन्यास-एकांकी-नाटक-व्यंग्य संग्रह का ही आशीर्वाद है।

मेरी मात्र भाषा हिन्दी है, मेरी संस्कृति हिन्दी है, मेरी सोंच भी हिन्दी है और मेरी अभिव्यक्ति भी हिन्दी है। परन्तु, मेरा कर्म अंग्रेजी है। गौर करने वाली बात यह है, कि अगर भाईचारे का कोई उदाहरण है, तो वो भाषाएँ हैं। इन्हें एक दूसरे से न द्वेष है, न इनके बीच कोई द्वन्द। ये ना अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित हैं, ना भयभीत। असल में ये एक दूसरे की शब्दावली को बड़े चाव से अपनी शैली में पिरोती हैं। कभी सुना है, हिन्दी को उर्दू के ऊपर जिहाद का आरोप लगाते हुए? कभी सुना है अंग्रेजी को "गुरु" जैसे हिंदी शब्दों को नकारते हुए? काश हम उपभोगता भी अपनी भाषाओँ की तरह सम्मलित सोंच रखते।

भाषायें हमारी सोंच को शब्दों के ढाँचे में ढ़ाल, उन्मुक्त और अविरल पहिए लगा देती हैं। आज राम की मर्यादा, कृष्णा की लीला, देवी के साहस और बापू के धैर्य की कहानियाँ, इन भाषाओं की ही सौगात हैं। साहित्य हमारी सोंच के दायरे को बढ़ाता है, समाज में क्रांति लाने का साधन बनता है, और हां, नारी सशक्तिकरण में एक बुज़ुर्ग की राय जैसा संतुलित होता है।


झाँसी की रानी पर जब सुभद्रा कुमारी चौहान ने ऐतिहासिक कविता लिखी, तो किसने सोंचा था कि ये पंक्तियाँ बूढ़े भारत में एक नयी ऊर्जा को जन्म देंगी, जो हर बिटिया के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन जाएगी और पुरुष प्रधान समाज में नारी के इतिहास का गीत गायेगी।

प्रेम चंद के किसान सूखा पड़ने पर, महाजन के अन्याय तले, परिवार को मजधार में छोड़ जीवन त्याग देते थे। अफ़सोस आज भी हमारे किसान प्रेम चंद की कहानियों के पात्र हैं।

दिनकर की रश्मिरथी जब दुर्योधन को सुयोधन के रूप देती है, तो हमारी अस्थिकृत सोंच भी ये सोंचने पर मजबूर हो जाती है, कि हमारे पारंपरिक दुर्योधन में एक पहलू सुयोधन का भी था। “समर शेष है” में राष्ट्रकवि जब जनता के हाथ में सिंहांसन सौंप कर, दिल्ली को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं, तब हर भारतीय नागरिक अधिकारों तथा कर्तवयों का प्रवाह करने को आतुर सा हो जाता है।

शिवाजी सावंत द्वारा रचित मृत्युंजय पढ़ने के बाद क्या आपको कर्ण के संघर्षों में अपने संघर्ष और स्वयं के साथ हुए अन्याय नहीं दिखते?

जब सालों पूर्व लिखा साहित्य, आपको अपने आज पर मंथन करने के लिए विवश कर दे, तो समझिये, साहित्यकार की रचना का पात्र आप ही हैं।

महादेवी वर्मा का विवाह ९ वर्ष में ही हो गया था, परन्तु क्या ये उनको रोक पाया? क्या समाज के नियम उनकी उड़ान को रोक पाए? क्या आप अपनी बिटिया को समाज का मूक दर्शक बन, स्वयं की आहूति देते देखकर, विचलित नहीं होते? समाज का सर्व प्रथम शत्रु अशिक्षा है, और उससे हमें मुक्ति कोई भी पूजा, हवन, उपाय या मन्त्र नहीं दिला सकता - इस शत्रु को हमें स्वयं हराना होगा। और हाँ, रक्तबीज के सामान, इसको जड़ के काटना होगा। एक अशिक्षित बेटी अपने परिवार को शिक्षित नहीं कर सकती, और एक और अशिक्षित परिवार समाज में पनपने लगता है।

शिक्षा को ही अस्त्र शस्त्र बनाओ, और साहित्य को अपना सलाहकार।

ऐसे ही तो हम अपनी धरोहर को उचित श्रद्धांजलि देंगे।

जय हिन्द जय भारत ।।

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