Tuesday, July 18, 2023

वजह

 

मेरी तन्हाई का शिकन
किसी और की मुस्कराहट है

मेरे आंख की नमी
किसी और की भीगी पलकें हैं

मेरी उँगलियों के बीच का खालीपन
किसी और की हथेली है

मेरे घर का सन्नाटा
किसी और की रौनक है

मेरी देहली का सूनापन
किसी और की बगिया है

मेरे आंगन का अँधेरा
किसी और की चांदनी है

मेरे अनकहे लफ्ज़
किसी और की बतियाँ है

वो मुरझाया गुलदस्ता
सुना रहा है एक अरसे की दास्तान

वो तही चादर
कर रही है एक मुद्दत से इंतज़ार

शायद कुछ आम था मुझमें
जो कहीं भी मिल गया
यकीनन कुछ ख़ास था तुझमें
जो मुझे कहीं भी न मिला ....

Monday, August 19, 2019

ज़िद्दी ख्वाहिशें


कितनी बातें ऐसी है,
जिन्हें ना कहने से खालिश होती है
और कह देने से ख्वाहिशें याद आ जाती है

ख्वाहिशों का भी एक अजीब खांचा होता है
दिखावे के लिए खाली होता है
असल में खचाखच भरी होती हैं ख्वाहिशें

इनके पहिए नहीं होते,
मन के रास्ते दबे पांव आती हैं ख्वाहिशें
डर अधूरे पन से होता है
जिसके मारे कभी नहीं जाती हैं ख्वाहिशें

सूरज के उजाले में शांत,
चांद तले बेचैन हो जाती हैं ख्वाहिशें
नींद से पुराना बैर है
रैना जगाती हैं ख्वाहिशें

ज़माने को मंजूर नहीं,
पर कुदरती है ख्वाहिशें
लाख भगायी हमने भी,
कमबख्त, दे ना बिदाई ये ख्वाहिशें

चिंगारी सी कहीं भीतर छुप जाती हैं
सावन की ठंडक में, हरकत करती हैं ख्वाहिशें
ज़माने के फरेब में, सहम जाती हैं
उम्मीद की बूंद गिरते ही, फूट पड़ती हैं ख्वाहिशें

कुछ यादों की डिब्बी में हमने भी
सहेजी हैं ख्वाहिशें
कुछ उम्मीदों के कटोरदान में
बंद पड़ी हैं ख्वाहिशें

अक्सर कोशिश करी हमने
दरिया में बहा दें ये ख्वाहिशें
जब भी किनारे बैठ पांव भिगोते हैं
सीढ़ियों पर फिर मिल जाती हैं ख्वाहिशें

बहुत समझाया है इन्हें,
हमें ना चाहिए ये ख्वाहिशें
वो भोलेपन से कहती हैं...

अकेलेपन में हम ही तो हैं जो साथ देते हैं
हम ही तो करते हैं तुमसे बातें
हम ही तो निभाते हैं वफ़ाएं 
हम हैं तुम्हारी आधी, अधूरी, अनछुई, अनकही ख्वाइशें!

Monday, July 9, 2018

निर्भया तेरा न्याय बाकी है












१६ दिसंबर की रात थी, 
वक़्त कुछ बेचैन सा था |
आसमान को भी आभास था, 
ये माहौल कुछ ठीक न था ||

पहले भी कई बार ये तूफ़ान आ चुका था,
कुछ रोज़ मर्रा का सिलसिला सा था |
फिर एक परी ने दम तोडा था,
और एक नए तारे का अंदेशा था ||

निर्भया जब आयी वो पशु-तत्वि दुनिया छोड़ कर,
कही अपनी व्यथा, पीड़ा में तर |
कहा अब वापस ना जाउंगी उस जंगल में,
जहां इंसान का नकाब है हर पशु के चेहरे पर ||

जिस सृष्टि के लोग संस्कारों की दुहाई देते हैं,
मेरी आत्मा को बेजड़ करा उन्होंने ने |
जो पत्थर की मूर्ति को शॉल उढ़ाते हैं,
मेरी चेतना को नग्न करा उन्होंने ||

जिस सृष्टि के लोग निर्जीव की रक्षा में जान लगाते हैं,
बीच सड़क अनदेखा करा उन्होंने |
जो ठिठुरते पिल्लै पर लाड दिखते हैं,
मुझे कलपता छोड़ा उन्होंने ||

आश्चर्य नहीं कुछ नहीं बदला,
जानती हूँ कुछ नहीं बदलेगा |
ये मंद मानसिकता का किस्सा है,
अभी तो बहुत दूर तलक जियेगा ||

ये कैसा आक्रोश था, जो समाज की परिभाषा को भी छू ना पाया
ये कैसे मोर्चा था, जो मेरी बेहेन को निर्भय बना न पाया |
ये कैसी मुहीम थी, जिसकी नींव सशक्ति न थी,
ये कैसी आवाज़ थी, जिसकी गूँज अविरल न थी ||

न्याय मुझे मिला नहीं, उन दरिंदों को सज़ा मिली है,
सम्मान नारी को मिला नहीं, उन पशुओं को बेनामी मिली है |

क्या है इन न्याय के पन्नो का अभिप्राय, जब चीर हरण अब भी आम है,
नज़र फिरा कर तो देखो, समाज में दुशासन तमाम हैं |
क्यों करूँ मैं केशव को याद, क्यों लगाऊं खुदा से फ़रियाद,
कौन कहता है लंका में विजयी हुए श्री राम,
जब अनगिनत मुखौटे पहने, घूम रहा है रावण सरे आम ||
#Nirbhaya #निर्भया

Monday, June 18, 2018

अम्मा मैं परायी ही भली ...


बाबा के दिल का टुकड़ा हूँ, तुम्हारी आँख का तारा नहीं,
मेरा नहीं ये आँगन, जानती हूँ - अम्मा मैं परायी ही भली |

बाबा के कंधे चढ़ मेला देखा, तुम्हारी गोद ठिकाना नहीं,
मेरा नहीं ये आँचल, जानती हूँ - अम्मा मैं परायी ही भली |





बाबा की कहानियां मेरी धरोहर है, तुम्हारी ममता अविभक्त नहीं,
मेरी नहीं ये विरासत, जानती हूँ - अम्मा मैं परायी ही भली |

बाबा की तालियां मेरी ऊर्जा हैं, तुम्हारी थपकी में विश्राम नहीं,
मेरे हिस्से नहीं प्रोत्साहन, जानती हूँ - अम्मा मैं परायी ही भली |

बाबा की चिंता मेरा परामर्श है, तुम्हारी लोरी में भी चैन नहीं,
मेरा नहीं ये सिरहाना, जानती हूँ - अम्मा मैं परायी ही भली |

ज़माने के कटाक्ष तोड़ते नहीं, तुम्हारे प्रश्नो की चक्की में पिसती हूँ ,
स्वाभिमान से त्रस्त उत्तर देती नहीं, जानती हूँ - अम्मा मैं परायी ही भली |

जीवन के चक्रव्यूह से भय नहीं, तेरे संदेह ने जकड़ा है,
निति तो है पर भेदती नहीं, जानती हूँ - अम्मा मैं परायी ही भली |

खूब प्यार बटोरा गैरों का, तेरा अप्रतिबन्ध दुलार बाकी है,
समझती हूँ ये मुमकिन नहीं, जानती हूँ - अम्मा मैं परायी ही भली |

कुछ तो कमी होगी मुझमें, जो रण जीते - तेरी ममता नहीं,
ये असत्य कि तेरी अपनी नहीं, ये भी सत्य - अम्मा मैं परायी ही भली |

अनेक बार मंथन करा स्वयं ने, क्यों तेरा वात्सल्य अकुलाया मुझसे,
तब ज्ञात हुआ वह गर्भ काल, जहां बिटिया बन, प्रमाद हुआ मुझसे |
इस दोष का क्या कोई उपाय, क्षमा याचना या दान नहीं |

अब समझा लिया है ख़ुद को,
अब मना लिया ख़ुद को ... क्यों मैं परायी ही भली |



Friday, April 27, 2018

समाज का शाश्वत सलाहकार - हिंदी साहित्य

महादेवी वर्मा - वो नाम जिसने 9 वर्ष की आयु में मेरा हिन्दी भाषा और उसकी सरलता से ऐसा परिचय कराया, कि एक रिश्ता सा हो गया शब्दावली से। अँग्रेज़ी स्कूल में पढ़ने और अँग्रेज़ी भाषा से मेरा लगाव, कभी भी हिन्दी से बने मीठे रिश्ते में बाधा नहीं बना। La Martiniere Girls’ College और मुंबई में रहने के बावजूद अपने गाँव, रिवाज, मान्यताओं की समझ और उनसे लगाव शायद महादेवी वेर्मा, सुमित्रा नंदन पंत, सुभधरा कुमारी चौहान, निराला, प्रेमचंद, जयशंकर प्रसाद के अनमोल कथा-कविता-उपन्यास-एकांकी-नाटक-व्यंग्य संग्रह का ही आशीर्वाद है।

मेरी मात्र भाषा हिन्दी है, मेरी संस्कृति हिन्दी है, मेरी सोंच भी हिन्दी है और मेरी अभिव्यक्ति भी हिन्दी है। परन्तु, मेरा कर्म अंग्रेजी है। गौर करने वाली बात यह है, कि अगर भाईचारे का कोई उदाहरण है, तो वो भाषाएँ हैं। इन्हें एक दूसरे से न द्वेष है, न इनके बीच कोई द्वन्द। ये ना अपने अस्तित्व को लेकर आशंकित हैं, ना भयभीत। असल में ये एक दूसरे की शब्दावली को बड़े चाव से अपनी शैली में पिरोती हैं। कभी सुना है, हिन्दी को उर्दू के ऊपर जिहाद का आरोप लगाते हुए? कभी सुना है अंग्रेजी को "गुरु" जैसे हिंदी शब्दों को नकारते हुए? काश हम उपभोगता भी अपनी भाषाओँ की तरह सम्मलित सोंच रखते।

भाषायें हमारी सोंच को शब्दों के ढाँचे में ढ़ाल, उन्मुक्त और अविरल पहिए लगा देती हैं। आज राम की मर्यादा, कृष्णा की लीला, देवी के साहस और बापू के धैर्य की कहानियाँ, इन भाषाओं की ही सौगात हैं। साहित्य हमारी सोंच के दायरे को बढ़ाता है, समाज में क्रांति लाने का साधन बनता है, और हां, नारी सशक्तिकरण में एक बुज़ुर्ग की राय जैसा संतुलित होता है।


झाँसी की रानी पर जब सुभद्रा कुमारी चौहान ने ऐतिहासिक कविता लिखी, तो किसने सोंचा था कि ये पंक्तियाँ बूढ़े भारत में एक नयी ऊर्जा को जन्म देंगी, जो हर बिटिया के लिए प्रेरणा स्त्रोत बन जाएगी और पुरुष प्रधान समाज में नारी के इतिहास का गीत गायेगी।

प्रेम चंद के किसान सूखा पड़ने पर, महाजन के अन्याय तले, परिवार को मजधार में छोड़ जीवन त्याग देते थे। अफ़सोस आज भी हमारे किसान प्रेम चंद की कहानियों के पात्र हैं।

दिनकर की रश्मिरथी जब दुर्योधन को सुयोधन के रूप देती है, तो हमारी अस्थिकृत सोंच भी ये सोंचने पर मजबूर हो जाती है, कि हमारे पारंपरिक दुर्योधन में एक पहलू सुयोधन का भी था। “समर शेष है” में राष्ट्रकवि जब जनता के हाथ में सिंहांसन सौंप कर, दिल्ली को सवालों के कठघरे में खड़ा करते हैं, तब हर भारतीय नागरिक अधिकारों तथा कर्तवयों का प्रवाह करने को आतुर सा हो जाता है।

शिवाजी सावंत द्वारा रचित मृत्युंजय पढ़ने के बाद क्या आपको कर्ण के संघर्षों में अपने संघर्ष और स्वयं के साथ हुए अन्याय नहीं दिखते?

जब सालों पूर्व लिखा साहित्य, आपको अपने आज पर मंथन करने के लिए विवश कर दे, तो समझिये, साहित्यकार की रचना का पात्र आप ही हैं।

महादेवी वर्मा का विवाह ९ वर्ष में ही हो गया था, परन्तु क्या ये उनको रोक पाया? क्या समाज के नियम उनकी उड़ान को रोक पाए? क्या आप अपनी बिटिया को समाज का मूक दर्शक बन, स्वयं की आहूति देते देखकर, विचलित नहीं होते? समाज का सर्व प्रथम शत्रु अशिक्षा है, और उससे हमें मुक्ति कोई भी पूजा, हवन, उपाय या मन्त्र नहीं दिला सकता - इस शत्रु को हमें स्वयं हराना होगा। और हाँ, रक्तबीज के सामान, इसको जड़ के काटना होगा। एक अशिक्षित बेटी अपने परिवार को शिक्षित नहीं कर सकती, और एक और अशिक्षित परिवार समाज में पनपने लगता है।

शिक्षा को ही अस्त्र शस्त्र बनाओ, और साहित्य को अपना सलाहकार।

ऐसे ही तो हम अपनी धरोहर को उचित श्रद्धांजलि देंगे।

जय हिन्द जय भारत ।।

Thursday, April 12, 2018

कहने के लिए असिफा...

कहने के लिए तुम नन्ही हो,
असल में इंतज़ार तुमसे बड़प्पन का है |
कहने के लिए तुम कली हो,
असल में इंतज़ार तुम्हारे खिलने का है |
कहने के लिए तुम किस्मत से मिलती हो,
असल में इंतज़ार तुम्हारी विदाई का है |
कहने के लिए तुम्हारे कई रूप हैं,
असल में इंतज़ार तुमसे परिणय का है |
कहने के लिए तुम सृष्टि रचती हो,
असल में इंतज़ार तुमसे वात्सल्य का है |
कहने के लिए तुम रिश्तों की डोर हो,
असल में इंतज़ार तुम्हे बाँधने का है |
कहने के लिए तुम लक्ष्मी हो,
असल में इंतज़ार तुम्हारे गहनों का है |
कहने के लिए तुम वृत्ता हो,
असल में इंतज़ार तुम्हारी परीक्षा का है |
कहने के लिए तुम याज्ञसेनी हो,
असल में इंतज़ार तुम्हारी उपेक्षा का है |
कहने के लिए तुम अमानत हो,
असल में इंतज़ार तुम्हारे दान का है |
कहने के लिए मैं बहुत कुछ हूँ,
असल में इंतज़ार मेरे सब कुछ का है |
बस कहने के लिए...
इस जग की हूँ,
इस आँगन की हूँ,
इस कुल की हूँ |
असल में...
मैं कहीं की नहीं हूँ
मैं किसी की नहीं हूँ
मैं कुछ नहीं हूँ |

Monday, December 25, 2017

वाजपेयी की धुंधली विरासत




राजनेता की परिभाषा हो,
मर्यादा की अभिव्यक्ति तुम |
क्यों पक्ष विपक्ष तुम्हारी मनुहार लगता है?
वो किसी दल-दल में नहीं न थे तुम ||

हर तर्क में राष्ट्र वफ़ा अधिकतम थी,
राजनिति में निति को जीवित रखते तुम |
क्यों करना पड़ा निष्ठा पुरुष को राजनीतिक संघर्ष?
वो किसी दल-दल में नहीं न थे तुम ||

भरी सभा में नारी को दुर्गा मान लिया,
विफलता से नहीं कतराते तुम |
कैसे राम रहीम का तराजू संभाला तुमने?
वो किसी दल-दल में नहीं न थे तुम ||

निजी जीवन का बाजार लगाया नहीं,
संतता का आडम्बर नहीं करते तुम |
कैसे मानव कलंक को नैतिक करा तुमने ?
वो किसी दल-दल में नहीं न थे तुम ||

राजनीति की मैली चादर भी मैला कर न सकी,
रथ के पहिये से भी चोटिल हुए नहीं |
क्या करते छल कपट का खेल खेलकर?
जब किसी दल-दल में ही नहीं थे तुम ||

विरासत उनको सौंप दी, जिनको राजधर्म पढ़ाते थे,
नज़र न झुकाओ अटल, द्रोणाचर्या के शिष्य भी दुर्योधन थे |
कैसे दे देते २००२ के संघार को अनुज्ञा?
जब किसी दल-दल में ही नहीं थे तुम ||

भेजो अपना दूत अति शीघ्र,
पीड़ा में माँ, नित ये गुहार लगाती है |
कैसे रोकोगे कमल को विकार की छीटों से?
अब तो कहो, शब्दों के कारीगर,अपने शिष्यों के दल में नहीं हो तुम ||

अपने शिष्यों की नीति में नहीं हो तुम ||
अपने शिष्यों की युक्ति में नहीं हो तुम ||
अपने शिष्यों की रणनीति में नहीं हो तुम ||